आयुर्वेद समग्र स्वास्थ्य विज्ञान

आयुर्वेद


संसार की सर्वाधिक जटिल यांत्रिकी “मानवदेह” की स्वास्थ्य-रक्षा एवं वैसे ही स्वास्थ्य को अनवरत साधने के लिए प्रजापति “ब्रह्मा” ने आयुर्वेद को उत्पन्न किया था। संसार में सुखमूलक आयुष्य के सन्तुलन हेतु इस ज्ञान को प्रजापति “दक्ष” को दिया गया।

किंतु अहंकारवश “दक्ष” ने आयुष्य के इस विलक्षण ज्ञान को देवताओं का तक सीमित कर दिया!
वे चाहते थे कि “आयुर्वेद” के अन्तिम ज्ञाता “अश्विनीकुमार” ही हों, ताकि मनुष्य सदा-सर्वदा देवताओं का आश्रित बना रहे तथापि राज्य में विद्यमान किसी भी विद्या में राजा का पारङ्गत होना भी आवश्यक है, अतः अंतत: ये ज्ञान देवराज “इन्द्र” को प्राप्त हुआ।
वे इस ज्ञान के प्रचार-प्रसार हेतु देवों व मानवों में बीच की कड़ी बने! वैसे “इन्द्र” उतने बुरे भी नहीं, जितना कि पौराणिक साहित्य ने उन्हें प्रचारित किया है। “इन्द्र” के सार्वभौम खल-चरित्र पर फिर कभी बात करेंगे अन्यथा “आयुर्वेद” के विषय से दूर निकल जाना होगा।

तो बन्धुओं, देवराज “इंद्र” के माध्यम से आयुष्य-ज्ञान का प्रचार भूमण्डल पर हुआ!

इस तथ्य की जड़ें वैसी गहरी हैं कि इतिहास का कोई भी आयुर्वेदाचार्य स्वयं को साक्षात् “इन्द्र” के शिष्य से कम कुछ भी मानने को सज्ज नहीं। इस हठ ने “आयुर्वेद” की शिष्य परम्परा को लगभग विनष्ट ही कर दिया था किन्तु भारतभूमि “वीर भोग्या वसुंधरा” है। यहाँ श्रमजीवियों की कमी नहीं।

बीसवीं-उन्नीसवीं सदी के संक्रमणकाल में, ठीक ऐसे ही एक श्रमजीवी “आयुर्वेद” में उभरे – श्री गिरीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय!

सन् १९२६ में कलकत्ता विवि से कई कई जिल्दों में प्रकाशित “हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन मेडिसिन” में श्री मुखोपाध्याय ने बड़ी यत्नपूर्वक छानबीन के साथ “आयुर्वेद” की शिष्य-आचार्य परम्परा को निर्मित किया है। विषय के जिज्ञासु पाठकमित्रों को ये पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए।
चलिए,आगे बढ़ते है
“आयुर्वेद” का मूलग्रन्थ तो “अथर्ववेद” ही है!

किन्तु सम्शय की न्यूनत्व यहाँ भी नहीं महर्षि “शौनक” व महर्षि “कात्यायन” ने वेद-वेदांङ्गों की विषयसूची सूत्रबद्ध विषयसूचियाँ निर्मित की थी, जिन्हें “चरणव्यूह” कहा जाता है। कालान्तर में इनके भाष्य हुए और निश्चित किया गया कि कौन सा ज्ञान? किस वेद से उपजा है?

इसी “चरणव्यूह” के अनुसार, “आयुर्वेद” का मूलवेद “ऋग्वेद” है। किन्तु विषय की गहराई और विस्तार को देखा जाए, तो “आयुर्वेद” का मूलग्रन्थ “अथर्ववेद” बनता है। जो भी हो, सकल वेद-समुच्चय भी तो “ऋग्वेद” का ही विस्तार है! तो क्या भेद और क्या विवाद कि “आयुर्वेद” का मूलवेद क्या है?

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“आयुर्वेद” के वैदिक प्रमाणों की चर्चा करें, तो “ऋग्वेद” में मन्त्रों में “अश्विनीकुमारों” का बड़ा विशद विवरण मिलता है। उनके शल्य-चिकित्सा विषयक दृष्टान्त बड़े ही मन्त्रमुग्ध करने वाले प्रतीत होते हैं।

उल्लेख है कि “अश्विनीकुमारों” ने महर्षि “च्यवन” का कायाकल्प कर उन्हें पुन: यौवन प्राप्त कराया था!

पहले मण्डल में एक सौ सोलहवें सूक्त का बारहवाँ मंत्र कहता है कि चिर-यशस्वी देववैद्यों ने महर्षि “दधीचि” का मस्तक हटा कर अश्व का मस्तक लगा दिया था और फिर “मधुविद्या” की साधना पूर्ण हो जाने पर पुन: वास्तविक मस्तक लगा दिया!
इसी मण्डल, इसी सूक्त का पंद्रहवाँ मंत्र कहता है कि एक बार महाराज “खेल” अपनी पत्नी “विश्पला” को युद्ध में साथ ले गए थे। वहाँ शत्रु के एक प्रहार से महारानी की टांगें कट गईं। चिकित्सा के लिए देववैद्यों को निमन्त्रण दिया गया। वे आए और उन्होंने लौह की जँघाओं का प्रयोग कर महारानी को स्वस्थ किया।
कैसा विलक्षण कालखंड रहा होगा? जब ऐसे उन्नत चिकित्सा-विज्ञान को मनुष्यों ने अपने नेत्रों से देखा होगा, जोकि आज के समय में कल्पनामात्र ही लगते हैं जबकि वर्तमान मानवजाति कहती है कि हम अब तक की सबसे उन्नत सभ्यता हैं!
वास्तव में, “आयुर्वेद” के क्षेत्र ने देववैद्यों के अतिरिक्त किसी को वैसी प्रसिद्धि नहीं दी!
चूँकि चिकित्साविज्ञान दो आधारों पर जा टिकता है : “क्यूरेटिव” व “प्रिवेंटिव”। इतिहास में जितने भी नाना प्रकार के “आयुर्वेदाचार्य” हुए, वे या तो “क्यूरेटिव” थे, अथवा “प्रिवेंटिव” थे।

अब इन दोनों भावों को पृथक् पृथक् जानिए!

“क्यूरेटिव” का अर्थ है : रोग का नाश।
“प्रिवेंटिव” का अर्थ है : रोग के कारण का नाश।

“क्यूरेटिव” होना रोगी के लिए लाभदायक है। जबकि “प्रिवेंटिव” होना समग्र स्वस्थ समाज के लिए लाभदायक है। ठीक यहीं आकर “आयुर्वेद” अपने समकक्ष सभी चिकित्साशास्त्रों से आगे निकल जाता है चूँकि वो स्वयं को पंछी मानता है, दो पाँखों वाला पंछी : एक पाँख “क्यूरेटिव”, तो दूजी “प्रिवेंटिव”।

शेष चिकित्साशास्त्र एक ही पाँख से उड़ा करते थे, शीघ्र भूमि पर आ गिरते थे। हालाँकि अब लगभग सभी पद्धतियाँ “प्रिवेंटिव” होने को अपना रही हैं, किंतु “आयुर्वेद” जैसी सजगता कहीं देखने को नहीं मिलती!

एक उत्तम “प्रिवेंटर” समाज को मिले, ताकि समाज का स्वास्थ्य अनवरत साधा जा सके साथ ही समय आने पर वो एक शानदार “क्यूरेटर” भी सिद्ध हो, ताकि रोग को महामारी बनने से रोका जा सके।

वस्तुतः, यही “आयुर्वेद” का प्रमुख उद्देश्य है। केवल शास्त्रज्ञ नहीं चाहिए, तो केवल “कर्मज्ञ” भी नहीं चाहिए। समाज को चिकित्सा का “उभयज्ञ” चाहिए, जो शास्त्र के अनुसार कर्म का निश्चय और कर्म के अनुसार शास्त्र की सिद्धि करे!
व्याध्युपसृष्टानां व्याधिपरिमोक्ष: च स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणम्। (सुश्रुत संहिता १|१२)
इति।

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