जी हां, यह एक गहरा और महत्वपूर्ण धारणा है। “भगवान भाव के भूखे होते हैं, वस्तु के नहीं” यह अर्थात् यह कि भगवान को हमारे मन में और हमारे भावनाओं में रूचि होती है, न कि उन्हें चीजों की आवश्यकता होती है।
इसका एक उदाहरण है कथा में जो कहती है कि एक बार एक योगी ने ध्यान के दौरान भगवान से प्रार्थना की कि वह उनकी भक्ति को प्रसन्न करें और उन्हें अपने साकार रूप में दर्शन दें। भगवान ने उनकी प्रार्थना सुनी और उन्हें अपने दरबार में बुलाया। योगी ने अपनी भक्ति के साथ दरबार में प्रवेश किया, लेकिन जब उन्होंने देखा कि ध्यान में लिप्त अनेक लोगों को भगवान ने अपने साकार रूप में दर्शन दिए हैं, तो वे अत्यंत आश्चर्यचकित हुए। उन्हें यह समझ में नहीं आया कि उनके साथ हुए योगदान की तुलना में, जो लोग ध्यान में लिप्त हैं और भगवान के भाव में लीन हैं, उन्हें ही भगवान की प्रासाद की प्राप्ति हुई। इसका संदेश यह है कि भगवान को हमारी भावनाओं और चित्त की पावनता से अधिक महत्व है, न कि भोजन या अन्य वस्तुओं की प्राप्ति।
इसी तरह संतों के कई जीवनी और कथाओं में भी इसी सिद्धांत को प्रमाणित किया गया है कि भगवान को भावनाओं और भक्ति का अधिक महत्व होता है। उनकी आगामी कहानी में, वे अनेक बार भोजन और अन्य सामग्री से वंचित रहते हैं, लेकिन उनकी आत्मा को उनके भक्तों के प्रेम और सेवा से पूरी भावना समझ मिलती है।
इस प्रकार, भगवान की भावना, भक्ति, और आदर्श के प्रति हमारी संबद्धता और समर्पण को उत्कृष्ट माना जाता है, जो उनकी प्रसन्नता का प्रमुख कारक होता है, न कि भोजन या अन्य सामग्रियों का उपयोग।