लखनऊ में प्रति वर्ष ज्येष्ठ माह में बड़ा मंगल का त्यौहार हर्षोल्लास से मनाया जाता है । इसमें हिन्दू व मुसलमान , दोनों ही समुदायों के नागरिक बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । यह त्यौहार लखनऊ की संमिश्रित संस्कृति का अनूठा उदाहरण है । यह त्यौहार भारत के और स्थानों में देखने को नहीं मिलता । बताया जाता है की इस त्यौहार का उद्गम १७१८ ईस्वी में है जब अवध के नवाब की बेगम को स्वप्न में हनुमान जी ने दर्शन दिए और उनकी प्रेरणा पर बेगम ने अलीगंज में स्थित पुराने हनुमान मंदिर का निर्माण कराया । तभी से ज्येष्ठ माह के हर मंगल का उत्सव धूम धाम से मनाया जाता है । इस अवसर पर व्यापारिक प्रतिष्ठान व नागरिक सड़क के किनारे शामियाना लगा कर असीमित ठंडा शर्बत , पानी व भोजन वितरित करते हैं । भजन अदि भी बजाये जाते हैं । मुस्लिम समुदाय भी इसमें खुले दिल से भाग लेता है । बच्चों को मंदिरों के आस पास लगे मेलों में विशेष आनंद आता है ।
हाल के कुछ वर्षों में इन आयोजनों में कुछ विकृति नज़र आयी है । इन विकृतियों के कारण इस त्यौहार की भव्यता धूमिल होती है और नागरिकों को अव्यवस्था से दो चार होना पड़ता है ।
पिछले दो दशकों में लखनऊ की जनसँख्या में भरी बढ़ोत्तरी हुई है । सामान्य दिनों में भी मुख्य मार्गों और रास्तों पर यातायात सुगम नहीं होता । बड़ा मंगल के अवसर पर विभिन्न आयोजक सड़क पर ही शामियाना लगा देते हैं जिससे मार्ग अवरुद्ध हो जाता है । रही सही कसर वहां आने वाले भक्त पूरी कर देते हैं जो शामियाने के ऐन बाहर अपने वाहन खड़े कर देते हैं । इन स्थानों पर यातायात अवरुद्ध हो जाता है । जरूरी काम से जाने वाले नागरिक समय पर गंतव्य तक नहीं पहुँच पाते हैं । बदलते समय की आवश्यकता है की इसके स्वरुप को भी बदला जाये । यह शामियाने ऐसे स्थानों पर ही लगाए जाएँ जहाँ खुली जगह हो और वाहन खड़ा करने का समुचित प्रबंध हो ।
दूसरा विषय है इन आयोजनों में प्रयुक्त पत्तल , प्लेट व गिलास आदि का है । जब से डिस्पोजेबल प्लेट गिलास आदि का चलन बढ़ा है , यह समस्या पैदा हो गयी है । इन आयोजनों में प्लास्टिक के प्लेट व गिलास आदि का प्रयोग होता है। पाया गया है की आयोजन की शाम को सडकों पर प्रयुक्त डिस्पोजेबल प्लेट व गिलास भरी मात्रा में बिखरे रहते हैं। हवा से उड़ कर दूर दूर तक फ़ैल जाते हैं । नालों में पहुँच कर उन्हें अवरुद्ध कर देते हैं । परिणाम स्वरुप १ ही महीने बाद वर्षाकाल में पानी निकल नहीं पाता और ठहरा हुआ पानी रोग व दुर्गन्ध फैलाता है। तारकोल की सड़क टूट जाती हैं । कुछ आयोजनों में पत्ते अदि की प्लेटों का प्रयोग होता हुआ देखा गया है जो की स्वागत योग्य है पर फिर भी अपर्याप्त है । पत्तों से बानी प्लेटों का जैविक नाश तो हो जाता है, और इसलिए इन्हीं का प्रयोग होना चाहिए, परन्तु उसमें कुछ महीने तक लग जाते हैं । तब तक ये पत्ते की प्लेटें आदि सड़कों / नालों में पड़ी रहती हैं और प्रदूषण का कारण बनती हैं । गिलास तो अभी भी सब स्थानों पर प्लास्टिक डिस्पोजेबल वाले ही प्रयोग हो रहे हैं जिनका जैविक नाश शताब्दी में भी नहीं होता । सभ्य समाज को इसका समाधान अपनाना होगा । एक उपाय है की आयोजक ही ऐसे कचरे का निपटारा करें । इसमें नगर निगम आदि को भी मिलाना होगा ।नगर निगम आदि को ऐसे आयोजन स्थल से कचरा उठाने का प्रबंध करना चाहिए । नगर के अंदरूनी हिस्सों में तो नगर निगम को ही कुछ स्थान इन आयोजनों के लिए चिन्हित करने होंगे । नगर निगम इन आयोजकों से कचरा निपटान का शुल्क भी ले सकता है । जो दानवीर लाखों रुपयों का भंडारा लगा सकते हैं , निश्चय ही ४०० – ५०० रुपयों का शुल्क दे सकते हैं ।
तीसरा विषय ध्वनि प्रदूषण का है । इन आयोजनों में लाउड स्पीकर पर भजन आदि बजने का चलन बढ़ गया है । इससे कोहराम सा मचा रहता है और ध्वनि प्रदूषण होता है । जो अवसर भक्ति और विनय का है , उस पर नकली दिखावे की होड़ सी मची रहती है जो कतई भी स्वीकार्य नहीं है । पुराने शहर में तो स्थिति बहुत विकराल हो जाती है । ट्रैफिक व लाउड स्पीकर का शोर मिलकर विकृत कोलाहल पैदा करता है । आयोजकों को चाहिए की वो इस उत्सव को इसकी मूल भावना के अनुसार मनाएं और मंद ध्वनि वाला भक्ति संगीत ही बजाएं ।
लगता है की दीर्घावधि में नगर निगम को इन आयोजनों को विनियमित करना होगा ताकि यह आयोजन सुचारु और सभ्य रूप से मनाये जा सकें । नगर निगम को तब स्थान की पर्याप्तता जांचकर इन आयोजनों की अनुमति देनी होगी । नागरिकों को भी अपने अधिकारों के साथ कर्तव्यों का भी निर्वाह करना होगा । आओ मिलकर भारत को प्रगति के पथ पर आगे ले जाएँ ।